खोज

मैंने तुम्हे कहाँ कहाँ नहीं खोजा,
मंदिर में, मस्जिद में, गिरजाघर में,
जंगलो में, वनो में, पहाड़ो में,
मरुस्थल में, उपवन में,
पीपल में , आम में, और केले के पेड़ो में,
बड़े बड़े साधु सन्यासियों में,
योगी, महायोगी, प्रवचनकर्ताओ में,
पत्थर की मूर्तियोँ में, बड़ी बड़ी शिलाओं में,
गंगा की लहरों में, संगम में,
चन्द्रमा में, सूरज में, सितारों में,
पुस्तकों में, कहानियों में, महाग्रंथों में,
रामायण में, कुरान में, बाइबिल में,
पैदल यात्राओं में ,उपवासों में,
प्राचीन पौराणिक इतिहासों में,
जगरातों में, रामलीलाओं में,
गीतों में, छंदो में, भक्ति के पदों में‘
कृष्ण की लीलाओं में,राम की मर्यादाओं में,
फूलों में, फलों में, और प्रिय वस्तुओ में,
योग में, वियोग में, और हट योग में,
संकीर्तन में, संध्या में, उपदेशों में, प्रचारों में,
दियों में, मोम बत्तिओं में,
लड्डुओं में, पतासों में, छतीस प्रकार के प्रसादों में,
मौन में, उच्चारण में,
कल्पनाओ में, आभाषों में,
चन्दन में, गेरू में, चरणामृत में,
गंगा के जल में, गिरी अचल में,
खोज निरर्थक रही, न हुई पूरी,
क्योंकि,
मैंने अपनी रचित सृष्टि में,
सृष्टि के रचियता को खोजा,
पर हर खोज में वही तो था साथ मेरे,
मुझे प्रकृति का कण कण दिखाने में,
अभियक्ति, परिकल्पनाएं समझाने में,
मान्यताएं, मर्यादाएं बताने में, सोचने में,
सिर्जना में, और मेरी चेतना को
पारलौकिक अनुभव कराने में।
कमल भास्कर
जालंधर, पंजाब
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