तन मन धन से जीवन सींचा,
फिर भी पीछे रही जिंदगी,
सुकून के पल न मिल पाए,
रह गयी कतरा कतरा जिंदगी।
जब जब मैंने वक्त से बोला,
जरा ठहर जा मेरे संग,
हंसता हुआ गुजर गया वह,
रुकने का न सीखा ढंग।
ईर्षा द्वेष नफरत को पाला
मोह माया का साथ दिया
बेशकीमती मानव तन को
विषयों में बर्बाद किया।
सांसारिक सुख प्राप्ति हेतु
जीवन व्यर्थ गंवा डाला
कतरा कतरा कटी जिंदगी
सच्चाई को छुपा डाला।
चाहत की सीढ़ी पर चढ़ना
जब मैंने था सीख लिया
उतरूँ कैसे यह न जाना
जीवन भी भयभीत किया।
ढला उम्र के साथ ये जीवन
तब अहसास यह आया
जीवन की आपाधापी में
कुछ भी हाथ न आया।
खाली हाथ था आया जग में
और खाली हाथ है जाना
किस बात का लालच करना
जब सब जग है बेगाना।
झूठ को सच करते और कहते
सारा ही जीवन निकल गया
सूख गई मेरी कंचन काया
अनजाने सब फिसल गया।
कितनी सुंदर है यह दुनिया
मन की आंखों से जब देखा
प्रकृति के संग बातें करके
बदल गई जीवन रेखा।
हर दिन अच्छा कभी न आए
क्यों झूठे ख़्वाब संजोता हैं
हर पल जीवन को जीने से
कुछ न कुछ अच्छा तो होता है।
कमल
जालंधर
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